शनिवार, 5 मई 2012

पहाड़ मर गया....!


















जंग छिड़ी हुई थी,
पर मैदान खाली था...!
कौन लड़ा? किससे लड़ा? कब लड़ा?
कुछ पता ही नहीँ चला,
और फिर एक दिन.....
अचानक ख़बर मिली - पहाड़ मर गया....!

विश्वास नहीँ हुआ....
आँखेँ फाड़कर चारोँ ओर देखा-
पहाड़ तो खड़ा है,
ठीक वैसे ही, जैसे पहले था।
घाटी से चोटी तक
और बुग्याल से हिमाल तक
कहीँ भी चोट का कोई निशान नहीँ था।

मैँ सोच मेँ डूबा ही था....
इतने मेँ एक और ख़बर आई-
गाँव हार गया है....!

माथे पर बल पड़ गया...
ये कैसी लड़ाई है...
जो दिखाई नहीँ देती...?

फिर गाँव जाकर देखा
तो पता चला-

इस बार लड़ाई मेँ...

मवेशी हार गए हैँ -
मोटरगाड़ियोँ से,
गाय का गोठ-
गाड़ी के ग़ैराज़ से,

दुबले पतले रास्ते हार गए हैँ-
मोटी-चौड़ी सड़कोँ से,
हार गई है पाथर की छत भी-
सीमेँट के लैँटर से।
इन सबके साथ-साथ हार गए हैँ-
मिट्टी के चूल्हे
और चीड़ की लकड़ियाँ भी-
गैस सिलेँडर से।
लड़ाई ख़त्म होने से पहले ही-
हार गया गाँव...!

तभी दूर की एक सड़क ने आवाज़ दी-
"ये हार नहीँ, जीत है - विकास की..."

मैँने ग़ौर से उसकी ओर देखा...
सड़क की जीभ पर
अभी भी लगा हुआ था-
पहाड़ का ख़ून....।

मैँने सड़क के इस तर्क के ज़वाब की आस मेँ
गाँव की ओर देखा....
लेकिन तब तक गाँव,
अपनी आख़िरी सांसेँ गिन रहा था.......।
............
"बूँद"
जुलाई 2009
(पिथौरागढ़)

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