मैँ अब केवल "मैँ" नहीँ हूँ।
क्योँकि अब मैँ
"मैँ" होने का भार
अकेले सहन नहीँ कर सकता।
इसलिए मैँ अब "हम" हूँ
क्योँकि "हम" होना
दायित्वोँ से बचने की
सबसे आसान संज्ञा है।
क्योँकि अब मैँ
"मैँ" होने का भार
अकेले सहन नहीँ कर सकता।
इसलिए मैँ अब "हम" हूँ
क्योँकि "हम" होना
दायित्वोँ से बचने की
सबसे आसान संज्ञा है।
मैं भीड़ भी हूँ
और नेता भी
सिगरेट के कश लगाते हुए
और चाय की चुस्कियां लेते हुए
बीच बहस में,
मैं अक्सर तय कर लेता हूँ कि कब क्या हूँ.....
गाँधी, मार्क्स, ओशो, फ्रायड
सब मेरे भीतर हैं
या यों कहूँ कि मैं ही गाँधी हूँ
और मैं ही मार्क्स, ओशो और फ्रायड भी,
दरअसल मैं सबकुछ हूँ
औरकभी कभी कुछ भी नही.....
मुझे जब लगता है कि
मैं होना, भीड़ से अलग दिखने की आसान संज्ञा है
तब मैं, मैं हो जाता हूँ
और जब मैं खुद को निराश और हताश
लाचार और कमज़ोर महसूस करता हूँ
तो मैं हम के खोल मैं छुपकर
समाज को गाली देता हूँ
और खुद को बचा ले जाता हूँ
"हम" से "मैँ"
और "मैँ" से "हम" तक का रास्ता
हमने खुद बनाया है,
बिल्कुल आसान और सीधा रास्ता....
और "मैँ" से "हम" तक का रास्ता
हमने खुद बनाया है,
बिल्कुल आसान और सीधा रास्ता....
मैं ये बात जानता हूँ कि
फायदे के लिए "मैँ" हो जाना बेहतर है
लेकिन उससे बेहतर है "मैँ" से "हम" के भीतर छुप जाना
लेकिन उससे बेहतर है "मैँ" से "हम" के भीतर छुप जाना
ज़िंदा रहने के लिए......
एक सुरक्षा कवच हमारे पास भी है
कछुए और घोँघे के जैसा।
इसलिए मैँ कब "मैँ" हूँ
और कब "मैँ नहीँ हूँ" कहना मुश्किल है।
कछुए और घोँघे के जैसा।
इसलिए मैँ कब "मैँ" हूँ
और कब "मैँ नहीँ हूँ" कहना मुश्किल है।
-----
"बूँद"
28 नवम्बर 2011
(डीडीहाट)
"बूँद"
28 नवम्बर 2011
(डीडीहाट)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें