शुक्रवार, 11 मार्च 2011

बुतपरस्ती का असर...


ज़िस्म ज़िंदा, ज़हन बुत है, ज़ुबां बुत, दिल-औ-नज़र
बुतपरस्ती का असर लोगों पे छाया इसक़दर

सोच के कमरों में ताले आस्था के जड़ दिए 
खड़े हैं बुत सवालों की चाभियों को फैंककर 

खटखटाए कोई दरवाज़ा तो कुछ सुनते नहीं 
आँख मुर्दा, कान मुर्दा, ज़हन है इक लाशघर 

इबादत है क़िताबों को वांचना-औ-जानना 
कफ़न पहनाकर हैं बैठे क़िताबों की लाश पर 

कथाओं के चरित्रों को समझना इक बात है
बुतपरस्तों ने उन्हें भी रख दिया रंग पोत कर 

नहीं है अस्तित्व जिसका उसको सच ये मानते 
कुछ कहो तो चिढ से जाते हैं ये हर इक बात पर

ख़ुदा क्या? भगवान क्या? पूछो, तो कहते, हवा है
हवा से ज़िंदा हैं हम तो हो इबादत पूजकर 

बुत तो फिर भी बुत हैं ये तो मनोरोगी बुत हैं "बूँद"
भूत, भय, भगवान चिल्लाते हैं ये बुत रातभर

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"बूँद" 
१२ मार्च २०११ 
डीडीहाट 
 


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