गुरुवार, 2 जून 2011

अब कविताऐँ कचोटती नहीँ हैँ....

 
दुःख मेँ सुख,
और अभाव मेँ आनंद,
सूखे पत्तोँ से भी
रस निचोड़ने की कला
विकसित कर ली है हमने...

आह मेँ वाह,
तलाशने की आदत ने
सौन्दर्य के मायने बदल दिए हैँ...

अब कविताऐँ कचोटती नहीँ हैँ
भावनाओँ का द्रव्यमान
आँसुओँ के आयतन से
अधिक हो गया है...
आक्रोश का बल
चेतना के त्वरण के कम होने से
कमज़ोर पड़ गया है

कला का गुरुत्वाकर्षण
मस्तिष्क को अपनी ओर
खीँच रहा है
और संवेदनाऐँ निर्वात मेँ दोलन गति कर रही हैँ....
............
"बूँद"
01-June-2011, Didihat (Pithoragarh)

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर.. वैज्ञानिक शब्दावली में भावनात्मक आकलन करती हुयी भावपूर्ण रचना - आभार प्रस्तुति के लिये

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  2. हमेशा की भांति उत्कृष्ट और झकझोर देने वाली कविता | ...आगे बढते रहो ....

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  3. आजकल के ह्रदयहीन समाज पर चोट करती भावपूर्ण कविता ...

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