संघर्षों से राज्य था पाया
पर अब लगता है ये पराया
आशाओं के बीज थे बोये
फसलें खोयी, बंजर पाया
आन्दोलन तो बहुत बड़ा था
पर ज़मीन पर कहाँ खड़ा था
इक तूफ़ान था गुज़र गया है
जो कुछ पाया बिखर गया है
आज रामपुर भुला दिया है
और खटीमा याद नहीं है
गैरसैंन की बात ही छोडो
मुजफ्फर तक याद नहीं है
पी पी और बम्बैया पनपे
भ्रष्टाचारी खड़े हैं तनके
अपराधों का ग्राफ बढ़ा है
शिक्षा खड़ी है वेश्या बनके
नेताओं के वारे न्यारे
नौकरशाही पांव पसारे
ठेके पर सरकार चल रही
घोटालों मैं मंत्री सारे
गुंडों को तमगे हैं बांटे
आन्दोलनकारी बतलाया
नेताओं ने रिश्तेदारों को
सचिवालय मैं बैठाया
नाम जो नाजों से रखा था
वो भी हमने भीख मैं पाया
चले गए थे जिनके द्वारा
फिर क्यूँ उनको राज थमाया
जिसने हर पल टांग अड़ाई
उसने ही गद्दी है पाई
फिर भी हमको शर्म न आई
कैसी खुशियाँ कैसी बधाई
आन्दोलन को ख़त्म कर दिया
नौ नवम्बर एक साजिश थी
अवसरवादी लूट ले गए
सीने मैं जितनी ख्वाहिश थी
भूल गए वो लाखों सपने
जिनके लिए था खून बहाया
छले गए थे इसी दिवस को
फिर ये कैसा जश्न मनाया ?
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विक्रम सिंह नेगी "बूँद"
०९-११-२००२
(पिथौरागढ़)
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