लिखो,
शब्दों के ताने बाने से समाज का दर्द,
लोगों ने तुम्हारे शब्दों में चित्रकारी देखने का हुनर सीख लिया है.
लिखो
समाज की कड़वी सच्चाई,
पाठकों को अब करेले का स्वाद मीठा लगने लगा है.
करो तंज,
व्यवस्था पर, कुरीतियों पर,
लोग खाने में तीखी मिर्च लेने के आदी हो गए हैं.
क्या अब भी कुछ बचा है लिखने को...??
जिसे तुम कोलाज़/पेंटिंग या स्वादिष्ट भोजन बनने से रोक सकते हो....??
(बूंद)
सही कहा आपने.समस्त प्रगतिशील साहित्य इन्टरटेनमेन्ट करने लगा है एक्सन के लिए प्रेरित नहीं कर पाता.कहीं ऐसा तो नहीं कि आज का साहित्य बहुत ज्यादा एकेडमिक टाईप का और दुरूह हो गया है जो आम आदमी के सिर के ऊपर से निकल जाता है
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