मैं अब “मैं” होने का भार
अकेले सहन नहीं कर सकता
इसलिए मैं अब “हम” हूँ
और हम होना दायित्वों से बचने की सबसे आसान संज्ञा है
मैं को कठघरे में खड़ा किया जाता है अक्सर
और हम दायित्वों से परे है
हम पर कोई इलज़ाम भी नहीं लगा सकता
क़ानून से भी परे है हम
जेलों में जगह नहीं है
हमको कैद करने के लिए
इसलिए बेहतर है
हम हो जाना
एक सुरक्षा कवच हमारे पास भी है
कछुए और घोंघे के जैसा
हम से मैं
और मैं से हम तक का रास्ता
हमने खुद बनाया है
चाय की चुस्कियों के बीच
कैप्सटन, गोल्फ्लैक, खुखरी और
बीड़ी का धुंआ उड़ाते हुए
बीच बहस में
मैं कभी भी तय कर लेता हूँ
कि मैं कब “मैं’ हूँ
और कब “हम”
हम और मैं कि बहस में हमेशा
शतरंज की मुहरों की तरह
सरकारें गिराने का खेल
हम अक्सर खेला करते हैं
चाय की दुकान में
बीच चौराहे पर
अक्सर प्रेस कांफ्रेंस होती है हमारी
आई.पी.एल., फीफा और सिनेमा से जुड़े मसलों
को लेकर
हम नए दौर के मानव हैं
गुड मोर्निंग और गुड नाईट के बीच के
छोटे से अंतराल में ही
फेसबुक, ओर्कुट, ट्विटर पर हम
बोलते हैं
लाईक और कमेन्ट के बीच बहुत सारे मसले हम
यों ही हल कर जाते हैं...
अब हम दो आँखों से नहीं देखते
दुनियां को देखने के लिए
हमारे पास हज़ारों आँखें हैं
फ्रायड, मार्क्स, गाँधी
अब हमसे अलग नहीं हैं
हम ही फ्रायड हैं
मार्क्स और गाँधी भी हम ही हैं
और गाँधी के बन्दर भी हम ही हैं
हम न तो बुरा देखते हैं
और न बुरा सुनते हैं
बुरे को बुरा कहना भी हमें अच्छा नहीं लगता
क्योंकि गाँधी कह गए थे-
बुरा मत बोलो..
हमें अब कुछ भी गलत नहीं लगता
गलत को सही साबित करने के तर्क
हमने ढूंढ लिए हैं
अब इतिहास हमारे लिए सतत विकास की प्रक्रिया नहीं है
इतिहास की जड़ें खोदना हमने सीख लिया है
अरस्तु, प्लेटो, सुकरात, सिकंदर,
रुसो, लेनिन, हिटलर, मुसोलिनी, माओ
अब इतिहास से नहीं झांकते
ये कैद हैं हमारे ही भीतर
इतिहास अब हमें विचलित नहीं करता
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, आजाद,
हेडगेवार, जयचंद, गोलवलकर,
चारु मजुमदार, कानू सान्याल,
मुलायम, माया, कांशी राम,
मोदी, कसाब, लादेन, एंडरसन,
अब एक साथ रहते हैं हमारे भीतर,
बिना किसी मतभेद के
हम विचारधारा के पीछे नहीं चलते
विचारधारा का इस्तेमाल करते हैं
क्योंकि आमिर खान कहता है—आल इस वेल
हम सच्चे देशभक्त हैं
क्रिकेट की जीत हमारी सबसे बड़ी खुशी है
हम खुश हो जाते हैं जब कोई गरीब झुग्गियों के बच्चों को
स्लमडोग कहकर पुकारता है
एक ओस्कर हमारे तमाम गिले शिकवे दूर कर देता है
हम जान गए हैं कि
इस दौर में
मैं होना सबसे बड़ी भूल है.
क्योंकि कमज़ोर होता है
मैं होना
अहंकार के बावजूद
इस बड़ी दुनियां में
मैं अकेला पड़ जाता है अक्सर
हार को दावत देता है मैं होना
और यह भी कि
कभी-कभी फायदेमंद होता है मैं होना
मैं हिंदू हूँ
मैं मुस्लिम हूँ
मैं सिक्ख, ईसाई हूँ
मैं दलित हूँ, अल्पसंख्यक हूँ
जाट हूँ, गोरखा हूँ,
हम इस दौर के सबसे बड़े विचारक हैं
हमारी अपनी विचारधारा है
फायदे के लिए मैं हो जाना जरुरी है
लेकिन उतना ही ज़रुरी है
मैं से हम के भीतर छुप जाना
आपातकाल में
कहते हैं साधू सन्यासी, पीर फ़कीर
मैं को जान लेना ही मुक्ति का द्वार है
इसलिए मैं को जानकर
हम की आड़ लेने में ही सबकी मुक्ति है
हम अब रोते नहीं हैं
रोने का दिखावा करते हैं
हमें चीखना नहीं आता
हम परेशान नहीं होते
और न होना चाहते हैं
क्योंकि हम ये जानते हैं कि
दुनियां में पहले से ही बहुत परेशानियां हैं
और ये परेशानियां हमारे घर की दीवारों में
धब्बों की तरह फैली हुयी हैं
और इन्ही धब्बों में
आधुनिक चित्रकारी के कुछ नमूने खोजकर देखना हमने सीख लिया है
अखबार-टीवी हमारे लिए अब केवल समय गुज़ारने का जरिया मात्र हैं
हिंसा, बलात्कार, आगजनी,गरीबी के
रंगों से रंगी तस्वीर
अब हमें विचलित नहीं करती.
क्योकि हमने सीख लिया है एक साथ
बहुत से नज़रियों को समेटकर सोचना
हमें पता है
और भी बहुत कुछ घटित हो रहा होता है दुनियां में
ठीक उसी वक्त,
जब हम किसी एक घटना के बारे में सोच रहे होते हैं
इसलिए अब हमारे लिए हर घटना केवल एक फिल्म की तरह है
हम रोज देखते हैं कि
कसाई बकरी और मुर्गे को कितनी शिद्दत से काटता है
हम रोज देखते हैं कि
बच्चे फूलों की तरह कितनी मनोरम मुस्कान बिखेरते हैं
हम आधुनिक कलाप्रेमी हैं
हमारी सोच की थैली में
एक साथ रहते हैं सभी रंग
अयोध्या, गोधरा, लालगढ़, दंतेवाडा,
अब हमें परेशान नहीं करते
निठारी कांड अब सनसनी नहीं फैलाता
यूनियन कार्बाईड से निकली जहरीली गैस
हमारे लिए परफ्यूम की तरह है
दंगों में मारे गए लोग
अब हमारी चिंता का विषय नहीं है
असहाय लोगों की दर्दनाक चीखों में
संगीत की सरगम पहचान लेने का हुनर
हमने सीख लिया है........
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विक्रम सिंह नेगी "बूँद"
२८ मार्च २०१२
(पिथौरागढ़)
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