एक उम्र बीत गयी
सापों को गाली देते हुए,
गिरगिट घूर रहे हैं,
कौवे उड़ रहे हैं सर के ऊपर,
सांप हमेशा सभ्य थे,
नगर कभी नगर था ही नहीं,
जंगल ही था,
और है...
गिरगिट
यों ही रंग नहीं बदलते,
ऐसा करना पड़ता है उन्हें,
जिंदा रहने के लिए
कौवे की कांव-कांव
हमें हमेशा ही बुरी लगी,
इसमें कौवों का कोई दोष नहीं,
हमारे कानों में ही कुछ दिक्कत है,
हम कुत्ते पालने के शौक़ीन हैं,
और पालतू जानवर गुलाम होते है,
कुत्तों का भोंकना,
हमें लफ्फाजी लगता रहा,
हमें पसंद नहीं कि
गुलाम ऊंची आवाज़ में बात करें
इसलिए हम हमेशा
कुत्तों को गाली देते रहे,
रोटी देखकर पूँछ हिलाना,
कुत्ते की आदत है,
और किसी की आदत को बदलने का
ठेका हमें अब तक नहीं मिला है,
जानवरों को गाली देना हमारी सभ्यता है,
क्योंकि हम समझते हैं
जानवर असभ्य होते हैं,
सभ्य होने का लाईसेंस हमारे ही पास है,
इसलिए हम केवल कविता लिखते हैं,
हमें नहीं पता कि
कितने जानवरों के सम्मान को ठेस पहुचाई है हमारी कविता ने,
लेकिन बावजूद इसके
हम पाक-साफ़ अहिंसा के पुजारी हैं...
ऐसा लिखने से कोई बदलाव नहीं आना है
क्योंकि सभ्य लोगों के लिए
अंडा फोड़कर आमलेट बनाना हिंसा नहीं है..... !
............
(बूँद)
२२ मई २०१२
(डीडीहाट)
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