बुधवार, 23 मई 2012

आओं, इस बार काफल खूब पके हैं

 
 
 
 
 
 
 
 
 
आओ
इस बार काफल खूब पके हैं,
हिसालू-किलमोड़े,
तुम्हारी राह देखे हैं,
मिलम, पोंटिंग, दारमा, व्यास घाटियां,
तुम्हारे क़दमों के निशां याद कर रही हैं,
बहुत अरसा हो गया,
तुम नहीं आये,
हिमालय की बर्फ पिघलने लगी है

रोज बच्चे आ जाते हैं,

सडकों पर
काफल बेचने के लिए,
उन्हें एक लंबी सी कार का इंतज़ार है,
रोडवेज की पुरानी बसें
और धूल उड़ाती हुई जीपें देखकर वो बोर हो गए हैं,

आओ

पहाड़ आओ
मैदानों की तपती गर्मी में तुम्हारा हाल बुरा होगा,
पहाड़ एक वैश्या की तरह
आज भी तुम्हें ठंडक देने के लिए बड़े-बड़े रिजोर्ट्स की बालकोनी से झांक रहा है,

तुम्हारे आते ही,

सब कुछ भूल जाता है पहाड़,
अपना दर्द, अपनी चोटें, अपना दुःख,
बस मुस्कुराके फोटो खिंचाने के लिए खड़ी हो जाती हैं,
दूर जंगल से घास लाती हुई औरतों की टोली,

आओ,

पहाड़ आओ,
इस गर्मी में तुम्हें राहत मिलेगी,
हमेशा की तरह,
इस बार भी तुम्हें पहाड़ मीठा ही लगेगा,
ये पहाड़ का वादा है तुमसे...
......
"बूँद"
२२ मई २०१२

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