भूखे सोते पेट कई हैं
कुदरत के आखेट कई हैं
कहीं ठिठुरती पूस के रातें
आग बरसते जेठ कई हैं
कहीं है बोझ उठता बचपन
कहीं है कठपुतली सा यौवन
फुटपाथों पर सोता जीवन
बेबस तन-मन ढोता जीवन
खून पसीना बिकता सस्ता
मजबूरी के रेट कई हैं
भूखे सोते पेट कई हैं
नंगे बदन सरकता बचपन
चिथड़ों से तन ढकता यौवन
धुंए में लिपटा हुवा बुढ़ापा
काँप रहा तन, हांफ रहा मन
घुद्ती साँसें, फटती आंतें
यहाँ मौत के गेट कई हैं
भूखे सोते पेट कई हैं
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विक्रम सिंह नेगी "बूँद"
(पिथौरागढ़)
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