बुधवार, 25 अप्रैल 2012

सुनो, इस बूँद के भीतर भी बादल घड़घड़ाते हैँ




उबलते हैँ मेरे ज़ज़बात, काग़ज़ फ़ड़फ़ड़ाते हैँ
कलम चलती है तो अल्फ़ाज़ अक्सर बड़बड़ाते हैँ

बुरा देखा, सुना लेकिन ज़ेहन मेँ जंग जारी है,
हमेशा होँठ, आँखोँ और कानोँ को चिढ़ाते हैँ

सफ़र लंबा, डगर छोटी, मगर चलना ज़रुरी है,
संभलते हैँ वही अक्सर, जो गिरते-लड़खड़ाते हैँ

उगलनी है कई बातेँ, सियाही छटपटाती है,
सुनो, इस बूँद के भीतर भी बादल घड़घड़ाते हैँ
........................

विक्रम नेगी "बूँद    "

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...