रातभर ओले पड़ते रहे,
टीन की छत-
ढोल-नगाडों की तरह,
जश्न मनाती रही तबाही का...
सुबह हुई तो देख रहा हूँ-
पेड़ों की तमाम पत्तियां टूट कर आँगन में बिखरी पड़ी हुई हैं,
कल तक जो सब्जी के पौधे क्यारियों में,
कतारों में खड़े होकर लहलहाया करते थे-
आज रोनी सी सूरत लेकर उदास बैठे हैं....
इधर तो बस उदासी का आलम है,
उधर गाँव का हाल न जाने क्या होगा...?
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विक्रम नेगी "बूँद"
11 april 2012
6:30 am
(Pithoragarh)
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