खुद आग लगाकर दरों से देखते हैं वो
जलते हुए घरों से हाथ सकते हैं वो
करते हैं बात भाषणों में चैन ओ अमन की
नफ़रत के बम शहर में रोज़ फ़ेंकते हैं वो
२१वी सदी में भी बात १०वी सदी की
इतिहास को चश्म ए मज़हब से देखते हैं वो
बाबर ओ गजनबी तो कबके भूत बन गए
इस दौर में भी उनकी कब्र खोदते हैं वो
नफ़रत का ज़हर दौड़ता है उनकी रगों में
ज़हरीले सांप बनके रोज़ रेंगते हैं वो
वो चाहते नहीं ये आग ख़त्म हो कभी
इस आग से तो रोटियां भी सेकते हैं वो
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विक्रम सिंह नेगी "बूँद"
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