गुरुवार, 27 जनवरी 2011

हमें चापलूसियों का आता नहीं है धंधा
















अच्छे को कहें अच्छा गंदे को कहें गन्दा
हमें चापलूसियों  का आता नहीं है धंधा

कोई यहाँ पे नरपति कोई बने वरदायी
रासो के रचियताओं की बाढ़ सी है आई 
चारण बने हैं सारे गुणगान मैं लगे हैं
कुछ ने लगाया मक्खन कुछ ने मली मलाई

किसी का जोर चल पड़ा किसी का रहा मंदा
हमें चापलूसियों  का आता नहीं है धंधा


हम जानते हैं कविता अधिकार है हमारा
अन्याय से लड़ने का हथियार है हमारा
कवितायेँ तो बदलाव की द्योतक सदा रही हैं
बदलाव के लिए यह औजार है हमारा

छीलते हैं खाल सबकी इसको बनाके रंदा
हमें चापलूसियों  का आता नहीं है धंधा


हर गद्य को उलट कर कोई पद्य कह रहा है
कोई बेतुकी तुकबंदी को काव्य कह रहा है
वर्चस्व की लड़ाई सब लड़ रहे यहाँ पर
एक दुसरे की कविता हर कोई सह रहा है

कर रहे हैं तैयार हम इन्ही के लिए फंदा
हमें चापलूसियों  का आता नहीं है धंधा


हम गीत नहीं गाते बस पोल खोलते हैं
जो बात लगे सच्ची वो बोल बोलते हैं
अपनी बढ़ाई करना भी हमें नहीं आता
हम अपने आप को भी हर रोज़ तोलते हैं

कविता की आढ़ में हम लेते नहीं हैं चंदा
हमें चापलूसियों  का आता नहीं है धंधा
....................
विक्रम सिंह नेगी "बूँद"
(पिथौरागढ़)    

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