सूरदास लिख रहे हैं अब कबीर चाहिए.
खून खत्म हो रहा है अब अबीर चाहिए.
आँख, कान, होंठ तो चुपचाप लौट आ गए.
घर की दीवारों को कलम और तीर चाहिए.
होंठ में ताकत कहाँ जो बात सच्ची कह सके,
मूक-बघीरों को तो काली लकीर चाहिए.
गली में जलती हुई इक झोपड़ी की आंच में,
पकने वाली भावना को शब्द खीर चाहिए.
...
"बूँद"
०२-०२-२०१३
०२:०९ अपरान्ह.
खून खत्म हो रहा है अब अबीर चाहिए.
आँख, कान, होंठ तो चुपचाप लौट आ गए.
घर की दीवारों को कलम और तीर चाहिए.
होंठ में ताकत कहाँ जो बात सच्ची कह सके,
मूक-बघीरों को तो काली लकीर चाहिए.
गली में जलती हुई इक झोपड़ी की आंच में,
पकने वाली भावना को शब्द खीर चाहिए.
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"बूँद"
०२-०२-२०१३
०२:०९ अपरान्ह.
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