गर्मी मेँ जलता शोला
सर्दी मेँ बरफ की सिल्ली है
समझ न आये मिज़ाज़ इसका
बाबूजी ये दिल्ली है...!
कभी हुआ ग़र यहाँ पे आना
चकाचौँध मेँ मत खो जाना
अजनबियोँ से बात न करना
दूर ही रहना पास न जाना
कौन कहाँ किस बात पे भड़के
सब माचिस की तिल्ली हैँ
बाबूजी ये दिल्ली है....
कोई बर्तन मांज रहा है
कोई रिक्शा हाँक रहा है
कोई सिर पे बोझ उठाये
काँप रहा है हाँफ रहा है
ग़रीब मजबूरोँ की हर पल
यहाँ पे उड़ती खिल्ली है
बाबूजी ये दिल्ली है....
सपने लेकर इस नगरी मेँ
हर दिन लाखोँ आते हैँ
धीरे धीरे वो सब भी
इस भीड़ मेँ गुम हो जाते हैँ
कोई यहाँ पे मोहम्मद तुग़लक
कोई शेख चिल्ली है
बाबूजी ये दिल्ली है....
(विक्रम नेगी "बूँद")
2005, जून, आज़ादपुर (दिल्ली)
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