ख़्वाब अधूरे, दुनियां पूरी, मायूसी तो खलती है.
सुबह उजाला कितना लाये, शाम तो यूँ ही ढलती है.
ख़्वाब हैं झूठे, यूटोपिया है, यकीन जिंदा है फिर भी,
रोज़ ही नारे लगते हैं और रोज़ मशालें जलती हैं.
ख़्वाब बेचकर बहुतों ने तो बंगले-कोठी बना लिए,
ख्वाब की उम्मीदों में गरीबी आज भी आँखें मलती हैं.
ख़्वाब के सौदागर पर अपना गुस्सा तू क्यों थूके "बूँद",
विज्ञापन से ही तो उनकी दुकानदारी चलती है.
---
"बूँद"
०१-०२-२०१३
सुबह उजाला कितना लाये, शाम तो यूँ ही ढलती है.
ख़्वाब हैं झूठे, यूटोपिया है, यकीन जिंदा है फिर भी,
रोज़ ही नारे लगते हैं और रोज़ मशालें जलती हैं.
ख़्वाब बेचकर बहुतों ने तो बंगले-कोठी बना लिए,
ख्वाब की उम्मीदों में गरीबी आज भी आँखें मलती हैं.
ख़्वाब के सौदागर पर अपना गुस्सा तू क्यों थूके "बूँद",
विज्ञापन से ही तो उनकी दुकानदारी चलती है.
---
"बूँद"
०१-०२-२०१३
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें