बुधवार, 26 जनवरी 2011

ये कैसा सवेरा?












न चंदा गगन पे न सूरज ज़मीँ पर
न तारे न जुगनू न पंछी कहीँ पर
न पर्वत हैँ ऊँचे न बादल घनेरे
न कुहरा घना है न फैला धुँआ है
फिर भी न जाने उजाला कहाँ है
चहूँ ओर फैला है अब तक अंधेरा...
ये कैसा सवेरा? ये कैसा सवेरा?

हवाओँ मेँ अब तक ये कैसी है गरमी
ज़माने के रुख मेँ नहीँ आई नरमी
है राहोँ मेँ हरदम ये कैसी रुकावट
ये रस्मो रिवाज़ोँ की झूठी बनावट
नहीँ टूटा अब तक ये पहरोँ का घेरा...
ये कैसा सवेरा?ये कैसा सवेरा?

कहाँ खो गये हैँ मेरे सारे सपने
न आया समझ मेँ हैँ कौन मेरे अपने
जिन्होँने था पाला समझ कर पराया
या जिसने मुझे अपनी दासी बनाया
कहाँ रह गया घर कहाँ मेरा डेरा...?
ये कैसा सवेरा?ये कैसा सवेरा?

न माँ की दुलारी न बाबा की प्यारी
हमेशा ही माँ बाप के मन पे भारी
सदा खामोशी मेँ ये जीवन बिताया
मुझे ऐसे जीना था किसने सिखाया?
बनी बीन हरदम ये जग था सपेरा...
ये कैसा सवेरा?ये कैसा सवेरा?

मिटी ख्वाहिशेँ और लुटे ख्वाब सारे
हैँ मरघट के जैसे ये सारे नज़ारे
मेरे ख्वाहिशोँ की ये लाशेँ टंगी हैँ
समझ मेँ न आया ये क्या ज़िंदगी है?
रहा ज़िस्म ज़िंदा मरा मन था मेरा...
ये कैसा सवेरा? ये कैसा सवेरा?

न आज़ाद थी मैँ न खुश थी जहां मेँ
यही सोचती रोज आई कहाँ मैँ?
न जी पाई बचपन न देखी जवानी
न लिख पाई मैँ अपनी ख़ुद की कहानी
मेरी ज़िंदगी मेँ है अब तक अंधेरा...
ये कैसा सवेरा? ये कैसा सवेरा?
.......................
(विक्रम नेगी "बूँद")

1 टिप्पणी:

  1. बहुत खूब. आपकी रचनाओ का जवाब नहीं. समाज में परिवर्तन के लिए आप जैसे ही कवि की आवश्यकता है. इसी तरह कविताओं का सुख देते रहिये. शुभकामनायें.

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