शनिवार, 5 मई 2012

कितना आसान लगता है...

















कितना आसान लगता है-
कह देना...
और उससे भी आसान-
लिख देना...
सीमाऐँ कितनी छोटी हो जाती हैँ-
अभिव्यक्ति के घरोँदे की

तय हो जाते हैँ फ़ैसले-
सोच की दहलीज़ पर
और खड़ी हो जाती है
कलम की नोक-
अन्याय के ख़िलाफ़

मुखर हो जाती हैँ
कविताऐँ, गीत, ग़ज़लेँ
ज़ुल्म से लड़ने के लिए

और
जंग का मैदान बन जाते हैँ काग़ज़ के पन्ने

जारी रहती है लड़ाई
मस्तिष्क के धरातल पर

कितना आसान लगता है इस प्रकार लड़ना...
और उससे भी आसान केवल पढ़ना.........!
...........
"बूँद"
10 दिसम्बर 2009
(पिथौरागढ़)

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