शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

"वो माओवादी था..."








परेशानी होती थी उसे
चुप रहने मेँ
घुटन होती थी
इसलिए
वो बोलता रहा
अन्याय, लूट,
भ्रष्टाचार के खिलाफ,
अंधी, बहरी, गूंगी,
सरकार के खिलाफ,
गाँवोँ मेँ, गलियोँ मेँ,
शहरोँ मेँ, सड़कोँ मेँ,
हर घर मेँ, हर मकान मेँ,
एक-एक आदमी के कान मेँ,
पोस्टर चिपकाता, चीखता-गाता,
वो बोलता रहा.....
मगर
इस बार....
लोगोँ के कानोँ तक पहुँचने से पहले ही
पहुँच गई हुक्मरानोँ के कानोँ तक उसकी आवाज़,
उन्होँने काट दी
सरेआम उसकी जुबान....
लहुलुहान पड़ा...
बीच चौराहे मेँ
खामोश कर दिया गया
हमेशा के लिए...
लोगोँ ने पूछा-
"क्योँ काटी उसकी ज़ुबान? वो तो सच बोलता था...."
जवाब मिला-
"वो माओवादी था..."
भीड़ खामोश हो गई
तभी...
एक नन्हीँ बच्ची ने सवाल किया- "क्या सच बोलने वाले माओवादी होते हैँ?"
इस सवाल का
हुक्मरानोँ के पास
कोई जवाब नहीँ था....!
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विक्रम सिँह नेगी "बूँद"

2 टिप्‍पणियां:

  1. negi ji aap ki kavita desh ki sachhai ko bayan karne men saksham hai ..isee jitne jyada log padhen wah desh hit mein hoga

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  2. आपकी कविता पढी / आवाम की आवाज को इतने बेहतर तरीके से आपने लेखनी में बखूबी उकेरा है / नि:संदेह आपका प्रयास काबिलेतारीफ है / इसी तरह से आगे भी आम जन की सच्चाई को उजागर करते रहना /

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